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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 92  जब देवयानी जगी तो बहुत तरो ताजा लग रही थी । एक तो उसकी थकान उतर गई थी और दूसरे , जो उसके मस्तिष्क में अभिमान का भूत घुसा हुआ था , कच की बातों से वह कहीं छूमंतर हो गया था । जब किसी व्यक्ति के सिर पर से दंभ का भूत उतर जाये तो वह व्यक्ति स्वयं को बहुत हलका महसूस करता है । देवयानी को भी यही अहसास हो रहा था । उसे लग रहा था कि वह रूई की तरह हलकी हो गई है । उसके अधरों पर एक निर्मल मुस्कान आ गई । आज न जाने कितने दिनों के पश्चात यह निर्मल मुस्कान आई थी उसके होठों पर । मनुष्य मुस्कुराता भी स्वार्थ के वशीभूत होकर ही है । निर्मल मुस्कान भी अब तो टेढी खीर हो गई है । अब तो  मुस्कुराने में भी बहुत सोच विचार करना पड़ता है जैसे कि मुस्कुराने में बहुत पैसे खर्च हो रहे हों ? कृपणता की पराकाष्ठा है ये ।

उसने अपने पास लेटी शर्मिष्ठा की ओर एक भरपूर नजर से देखा । सोते हुए कितनी मासूम लग रही थी शर्मिष्ठा । एक तो सौन्दर्य की देवी और उस पर बला की मासूमियत ! यदि इस स्थिति में कोई शर्मिष्ठा को देख ले तो उस पर अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जायेगा । गहरी निद्रा में होने के कारण वह बेसुध पड़ी थी । उसे विश्राम करने का अवसर ही नहीं मिला था । "दासी" जीवन आसान है क्या ? दासी को तो सदैव चौकन्ना रहना पड़ता है । पता नहीं स्वामिनी कब जग जाये और कब बुला ले ?

आज शर्मिष्ठा संभवत: निष्फिक्र होकर सो रही थी जो उसके चेहरे से ज्ञात हो रहा था । इन थोड़े से दिनों में उसका रंग फीका और तन कृश हो गया था । देवयानी को अपने व्यवहार पर पश्चाताप होने लगा । लेकिन होनी को जो मंजूर होता है, वही होकर रहता है । मनुष्य तो निमित्त मात्र है । वह एकटक शर्मिष्ठा को देखती रही । कैसा निर्मल , स्निग्ध, निष्पाप सौन्दर्य है शर्मिष्ठा का । देवयानी की दृष्टि उसके वक्षों की ओर चली गई । निद्रा में अचेत होने के कारण उसका आंचल उसके वक्षस्थल से थोड़ा सा सरक गया था जिससे उसके दोनों उन्नत उभार सीना ताने ऐवरेस्ट और कंचनजंघा की चोटियों की तरह अडिग खड़े हुए दिखाई दे रहे थे । शर्मिष्ठा के बदन की सुडौलता अद्भुत थी । इतनी कमनीय तो देवयानी भी नहीं थी । उसे देखकर एक बार पुन: देवयानी को शर्मिष्ठा से ईर्ष्या होने लगी । लेकिन उसे तुरंत ही अपनी त्रुटि का अहसास हो गया । "उसे तो पूरा साम्राज्य मिल चुका है । अब और कुछ पाने को शेष नहीं है । इस बेचारी के पास अब बचा ही क्या है ? केवल 'देह' ही तो है । फिर भी उससे ईर्ष्या ? वह फिर से उसी पाप के मार्ग पर जा रही है" । उसने अपने विचारों के प्रवाह पर लगाम लगाई और अपनी सखि के मस्तक पर एक चुंबन अंकित कर दिया । इससे शर्मिष्ठा की निद्रा भग्न हो गई और उसकी आंखें खुल गई । उसने देखा कि वह देवयानी के पलंग पर लेटी हुई है तो वह एकदम से भयभीत हो गई और शीघ्रता से पलंग से छलांग लगाकर नीचे आ गई और देवयानी के पैर पकड़कर बोली  "क्षमा, स्वामिनी क्षमा ! मुझे ज्ञात नहीं है स्वामिनी कि मैं आपके पलंग पर कैसे पहुंची ? मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा कर दीजिए" । वह फूट फूटकर रोने लगी ।  "नहीं शर्मिष्ठे, ऐसा मत कहो । मैंने ही तुम्हें अपने पास सुलाया था । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । और तुम मुझे स्वामिनी कहकर और लज्जित ना करो सखि । मैं जानती हूं कि मैंने तुम पर बहुत अनाचार किया है जिसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं । अब बस भी करो , और जाकर सैरंध्रियों को ले आओ । आज हम दोनों सखियां एक साथ तैयार होंगी" देवयानी मुस्कुराते हुए बोली ।  "क्या ? ये आप क्या कह रही हैं, स्वामिनी" ? शर्मिष्ठा अवाक् होकर देवयानी को देखने लगी ।  "मैं वही कह रही हूं जो तुम सुन रही हो । सम्राट को आज मैं एक बहुत बड़ा वैकल्य (सरप्राइज) देना चाहती हूं " । देवयानी चहकते हुए बोली ।  "कैसा वैकल्य, स्वामिनी" ? शर्मिष्ठा समझने का प्रयास करने लगी ।  "देख, तू मुझे बार बार स्वामिनी मत कहा कर । यदि अब कहा तो मैं तुझसे क्रोधित हो जाऊंगी और .." देवयानी कहते कहते रुक गई ।  "और क्या सखि" ? शर्मिष्ठा की जिज्ञासा बढती जा रही थी ।  देवयानी कुछ सोचते हुए बोली "और तुम्हें मैं आज अपनी सुहाग सेज पर महारानी बनाकर बैठा दूंगी और मैं तुम्हारी दासी बन जाऊंगी । यही तो वैकल्य है महाराज के लिए । है ना अद्भुत वैकल्य  ! ऐसा पहले कभी देखा है तुमने ? आज देखना तुम । कितना आनंद आएगा ? मैं तो सोच सोचकर ही प्रसन्न हो रही हूं , जब होगा तब क्या होगा ? आज महाराज की परीक्षा भी हो जायेगी कि वे तुम्हें पहचानते भी हैं या नहीं" ? एक जोर का ठहाका लगाते हुए देवयानी कहने लगी ।

देवयानी की विक्षिप्तों वाली बातें सुनकर शर्मिष्ठा हतप्रभ रह गई । उसे कुछ नहीं सूझा तो वह बोल पड़ी "सखि , तुम विक्षिप्त तो नहीं हो गई हो ? ये कोई प्रहसन नहीं , प्रथम प्रणय रात्रि है आपकी । सम्राट को ज्ञात होगा तब मुझे क्या दंड मिलेगा इसका भान है क्या आपको ? मैं बेचारी पहले ही नियति की मारी हूं , अब पता नहीं मेरा क्या होगा" ? शर्मिष्ठा देवयानी के चरणों में गिर पड़ी ।  "अरे, ये क्या कर रही हो सखि ? तुम तो बहुत साहसी , निडर और धैर्यवान युवती हो । तुम इतनी क्यों भयभीत हो रही हो । सम्राट की परीक्षा होने दो ना ? और यदि इतनी अधिक ही भयभीत हो रही हो तो हम लोग श्वश्रु माता को भी इस "षड्यंत्र" में सम्मिलित कर लेते हैं । फिर सम्राट क्या कर लेंगे" ? आज तो देवयानी का एक पृथक ही रूप नजर आ रहा था । शर्मिष्ठा सोचने लगी कि अचानक ये देवयानी को क्या हो गया है ?

देवयानी किसी की मानती है क्या ? जो मन में आता है वही करती है । वह शर्मिष्ठा को लेकर अशोक सुन्दरी के कक्ष में चली गई । अशोक सुन्दरी उन दोनों को देखकर हर्ष मिश्रित आश्चर्य में डूब गई । दोनों का स्वागत करते हुए बोली  "मेरे अहोभाग्य, मेरी दोनों पुत्रियां आज मेरे कक्ष में प्रथम दिन ही पधार गई हैं । ये लो पुत्री , मेरी ओर से एक छोटी सी भेंट" । उन्होंने अपनी कलाई से दो कंगन उतार कर दोनों को देते हुए कहा ।  "माते, हम तो आज आपको हमारे षड्यंत्र में सम्मिलित करने आईं हैं । पहले एकान्त हो जाये फिर हम अपनी योजना आपको बतायेंगे" । देवयानी के अधरों पर एक रहस्यमयी मुस्कान खेल रही थी ।  नववधू देवयानी के इस परिवर्तित रूप को देखकर अशोक सुन्दरी को आश्चर्य भी हो रहा था और हर्ष भी हो रहा था । वह "एकान्त" का आदेश देकर पलंग पर बैठते हुए बोली "अब कहो, क्या खेल खेलना चाहती हो तुम दोनों" ?

उसी पलंग पर देवयानी बैठते हुए अपनी योजना समझाने लगी । सारी योजना सुनकर अशोक सुन्दरी खूब हंसी । हंसते हंसते ही बोली "आज प्रथम समागम रात्रि को बहुत बड़ा खेल खेल रही हो देवयानी । कहीं यह खेल उल्टा ना पड़ जाये ? मेरे पुत्र की अग्नि परीक्षा क्यों लेना चाहती हो तुम ? कहीं वह अनुत्तीर्ण हो गया तो ? बहुत बड़े संकट को आमंत्रित कर रही हो तुम । और एक बार सोच लो" । अशोक सुन्दरी भी हंसते हुए बोली ।  "सोच विचार करने के पश्चात ही हम यहां आईं हैं मां । आप हमारा साथ दोगी ना माते ? आज की रात्रि सम्राट को छकाना है माते । आज की रात्रि को अविस्मरणीय बनाना है माते । दोगी ना हमारा साथ" ? बालकों की तरह ठिनकते हुए देवयानी बोली ।  अंत में विजय श्री देवयानी को ही मिली ।

श्री हरि  6.9.23

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1 Comments

Gunjan Kamal

06-Sep-2023 10:28 PM

👏👌🙏🏻

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